भारत सरकार द्वारा दूरदर्शन की शुरूआत 15 सितम्बर 1959 में छोटे ट्रांसमीटर और स्टूडियो के साथ हुई लेकिन ये जल्द ही राष्ट्र के दिल की धड़कन बन गया ये परिदृश्य 1990 की शुरुआत तक रहा आज दूरदर्शन 59 साल का हो गया है पहले सिर्फ शाम को दो घंटे का ही प्रसारण संभव हो पता था लेकिन पता नहीं क्यों अब तक ब्लैक एंड व्हाईट वाले ''दूरदर्शनी दौर '' की
यादें ज़ेहन में ताज़ा हैं इतने साल गुज़र गए लेकिन टी.वी. देखने का वो
रोमांच दोबारा नसीब नहीं हो सका ....बाद में तो टी.वी. बहुत ही प्रेडिक्टेबिल हो गया ढेर सारे चैनल आ गए तो वो मज़ा जाता रहा
उफ़ वो दिन भूलते नहीं ……जब एंटीना छत पर जा कर सही करना और छत से चिल्लाना ''हो गई सही .........जब दूरदर्शन पर सत्यजीत रे की फिल्में देर रात आती थी....... 'रंगोली' और 'चित्रहार' जीवन का हिस्सा थे .....जब पढ़ाई और संडे की फिल्म के बीच संतुलन बनाना बेहद ज़रूरी लगता था..... शनिवार रात को आनेवाली 'साप्ताहिकी 'में संडे को आने वाली फिल्म का ट्रेलर रोमांच भर देता था ये फिल्म की झलकी ही तय करती थी की हमें संडे बाजार जाना है या नहीं ' ..........फिल्म 'काला-आदमी' में पुलिस से भागते सुनील दत्त बच्चे से अचानक बड़े हो जाते हैं या जब 'विक्टोरिया नंबर 203' में विक्टोरिया और हीरों का रहस्य गहराता चला जाता है ,जब 'दीवार' में इंटरवल के वक्त एक भाई एक दिशा में और दूसरा दूसरी दिशा में जाता है और स्क्रीन पर बीच में एक लकीर आ जाती है तो दिमाग में द्वंद्व शरू हो जाता था की 'अब आएगा असली मजा ' ...........फिल्म के बीच में आने वाले सलमा सुलतान या शम्मी नारंग के 15 मिनट के समाचार में ही सारे जरुरी काम निपटना अनिवार्य सा हो जाता था
उफ़ वो दिन भूलते नहीं ……जब एंटीना छत पर जा कर सही करना और छत से चिल्लाना ''हो गई सही .........जब दूरदर्शन पर सत्यजीत रे की फिल्में देर रात आती थी....... 'रंगोली' और 'चित्रहार' जीवन का हिस्सा थे .....जब पढ़ाई और संडे की फिल्म के बीच संतुलन बनाना बेहद ज़रूरी लगता था..... शनिवार रात को आनेवाली 'साप्ताहिकी 'में संडे को आने वाली फिल्म का ट्रेलर रोमांच भर देता था ये फिल्म की झलकी ही तय करती थी की हमें संडे बाजार जाना है या नहीं ' ..........फिल्म 'काला-आदमी' में पुलिस से भागते सुनील दत्त बच्चे से अचानक बड़े हो जाते हैं या जब 'विक्टोरिया नंबर 203' में विक्टोरिया और हीरों का रहस्य गहराता चला जाता है ,जब 'दीवार' में इंटरवल के वक्त एक भाई एक दिशा में और दूसरा दूसरी दिशा में जाता है और स्क्रीन पर बीच में एक लकीर आ जाती है तो दिमाग में द्वंद्व शरू हो जाता था की 'अब आएगा असली मजा ' ...........फिल्म के बीच में आने वाले सलमा सुलतान या शम्मी नारंग के 15 मिनट के समाचार में ही सारे जरुरी काम निपटना अनिवार्य सा हो जाता था
उन्हीं दिनों रविवार को सबेरे एक कार्यक्रम आता था ...गुरबानी .....ठीक से याद नहीं हो सकता है कि उसका नाम 'सरब-सांझी-गुरबानी' रहा हो उसकी शुरूआत होती थी एक शबद से--'कोई बोले राम राम कोई खुदाय' जो एक रूहानी एहसास करवाता था .......विनोद दुआ का 'आप के लिए 'तो सभी की पसंद था ........ 'तमस ' देखने के बाद इस दुविधा में रहते थे की यह फिल्म है या धारावाहिक ?.......... 'स्टार ट्रैक ' और 'दा लूसी शो ,'जॉइंट रोबोट' विदेशी धारावाहिक होते हुए भी समझ आ जाते थे पता नहीं कैसे ? ........'
नुक्कड़ ' के खोपड़ी को देखकर गली का हर शराबी हमें खोपड़ी ही लगता था रामायण
,महाभारत जैसी पौराणिक गाथा को देखना सुखद लगता था इनके आगे आने वाले
एपीसोड की चर्चा स्कूल में जरूर होती थी ...........'हम लोग' और 'बुनियाद ' के पात्र बड़की
,नन्हे ,लल्लू दादी हवेली राम ,बसेसर राम हमें अपने घर के सदस्य जैसे लगते थे ........'किले का
रहस्य' तो हर एपिसोड में और गहरा जाता था .......'रजनी ' की सलाह बच्चो से लेकर
बूढ़ो तक को भाती थी .........'सुरभि 'के सिर्द्धार्थ काक और रेणुका शहाणे पर हमारा ज्ञान बढ़ाने का जिम्मा था ...........हँसाने और मिडिल क्लास की प्रॉब्लम को दर्शाने का जिम्मा 'मिस्टर वागले' और ये 'जो है ज़िन्दगी 'बखूबी निभाते थे ......'आरिफ लैला' और 'विक्रम और बैताल' हमें कल्पना लोक की उस दुनिया में ले जाते जिस कल्पना लोक का जिक्र हमारी नानी और दादी की कहानियो में मिलता था .......बिजली
चले जाने पर जम कर बिजली वालो को गाली देना और कोसना फिर वो मोहल्ला ढूंढना
जहाँ बिजली आ रही हो ताकि क्रिकेट का स्कोर पता चल जाये.........दूरदर्शन के पिटारे में प्रत्येक भारतीय के लिए कुछ ना कुछ अवश्य था इनमे से कितने धारावाहिक आज भी आप लोगों को याद है पता नहीं पर वो यादे है की जाती नहीं ......चाहे शुक्रवार और बुधवार की शाम को देखे
चित्रहार की फ़िल्मी धुनों को अंताक्षरी में गुनगुनाना हो ,चाहे सप्ताह
में एक बार दिखाई जाने वाली फिल्म को पूरे परिवार के साथ मिल-बैठकर देखना
हो कुछ सीटे तो पड़ोसियों के लिए भी रिज़र्व होती थी जो बिन बुलाये ही अपने
आप आ जाते थे ये प्यार और अपनापन आज नहीं है इसकी कमी बेहद खलती है
आज इस चरमराती संस्था दूरदर्शन में अब वो उल्लास नहीं बल्कि ख़ामोशी सी है कभी राष्ट्र में हलचल पैदा करने वाला ये चैनल अब वैसा नहीं रहा इसका सबसे बड़ा कारण है की दूरदर्शन समय के साथ नहीं चला इसलिए आज अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है अपने उत्कर्ष के दिनों में लोग दूरदर्शन इसलिए देखते थे क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं था लेकिन जैसे-जैसे नए चैनल आते गए हालात बदलते गए दूरदर्शन को इससे निपटने के लिए तैयार रहने की आवश्यकता थी जो उसने नहीं किया खैर आज बाज़ार में तरह तरह के टेलीविजन और ढेरों चैनल उपलब्ध है जिन पर ढेरों सीरियल ,समाचार व प्रोग्राम्स ,फिल्मे आदि आती रहती है आज हालात ये है की दूरदर्शन के होने या न होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता पर दूरदर्शन के दिखाये 80 और 90 के दशक के सीरियल्स व प्रोग्राम्स की बात ही कुछ और ही थी जो उस ज़माने में दूरदर्शन पर आते थे.............. प्रोग्राम ख़त्म होने पर टीवी का शटर बंद कर विधिपूर्वक कढ़ाई वाला पर्दा ओढ़ाने के बाद रात को रजाई में दुबके हुए कानो में दूर से आती किसी शादी में ओर्केस्ट्रा की 'रम्भा हो-हो-हो ' की आवाज़ हो या शाम को स्कूल से घर वापिस लौटते वक्त गलियों से आती दूरदर्शन की ' सिग्नेचर टयून ' जो बताती थी की शाम के 6 बज गए है ..........रूकावट के लिए खेद है 'का बोर्ड खीझ पैदा करता था फिर किसी बड़े समझदार द्वारा ये कहना की ' शायद फिर से सालो की रील टूट गई है ' हमें समझ नहीं आता था और हम एक दूसरे का बस मुंह ताकते रहते .......ये सब वो अमूल्य यादे है जिसे आज की पीढ़ी के बच्चे शायद महसूस भी न करे या यूँ कहे की हमारे हिस्से मे आयी इस अमूल्य धरोहर से वंचित रहना उनकी बदकिस्मती है जिस धरोहर हम आज भी अपनी यादो में उम्दा तरीके से सहेजे हुए है
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आज इस चरमराती संस्था दूरदर्शन में अब वो उल्लास नहीं बल्कि ख़ामोशी सी है कभी राष्ट्र में हलचल पैदा करने वाला ये चैनल अब वैसा नहीं रहा इसका सबसे बड़ा कारण है की दूरदर्शन समय के साथ नहीं चला इसलिए आज अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है अपने उत्कर्ष के दिनों में लोग दूरदर्शन इसलिए देखते थे क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं था लेकिन जैसे-जैसे नए चैनल आते गए हालात बदलते गए दूरदर्शन को इससे निपटने के लिए तैयार रहने की आवश्यकता थी जो उसने नहीं किया खैर आज बाज़ार में तरह तरह के टेलीविजन और ढेरों चैनल उपलब्ध है जिन पर ढेरों सीरियल ,समाचार व प्रोग्राम्स ,फिल्मे आदि आती रहती है आज हालात ये है की दूरदर्शन के होने या न होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता पर दूरदर्शन के दिखाये 80 और 90 के दशक के सीरियल्स व प्रोग्राम्स की बात ही कुछ और ही थी जो उस ज़माने में दूरदर्शन पर आते थे.............. प्रोग्राम ख़त्म होने पर टीवी का शटर बंद कर विधिपूर्वक कढ़ाई वाला पर्दा ओढ़ाने के बाद रात को रजाई में दुबके हुए कानो में दूर से आती किसी शादी में ओर्केस्ट्रा की 'रम्भा हो-हो-हो ' की आवाज़ हो या शाम को स्कूल से घर वापिस लौटते वक्त गलियों से आती दूरदर्शन की ' सिग्नेचर टयून ' जो बताती थी की शाम के 6 बज गए है ..........रूकावट के लिए खेद है 'का बोर्ड खीझ पैदा करता था फिर किसी बड़े समझदार द्वारा ये कहना की ' शायद फिर से सालो की रील टूट गई है ' हमें समझ नहीं आता था और हम एक दूसरे का बस मुंह ताकते रहते .......ये सब वो अमूल्य यादे है जिसे आज की पीढ़ी के बच्चे शायद महसूस भी न करे या यूँ कहे की हमारे हिस्से मे आयी इस अमूल्य धरोहर से वंचित रहना उनकी बदकिस्मती है जिस धरोहर हम आज भी अपनी यादो में उम्दा तरीके से सहेजे हुए है
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पवन मेहरा
(सुहानी यादे ,बीते सुनहरे दौर की )
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